मनुष्य के जीवन को चलाने के लिए जो आधारभूत तत्व है रोटी कपड़ा और मकान उन सब की पूर्ति जिससे होती है वह है धन यहां तो हम सब जानते हैं की धन के बिना हमारी जिंदगी कुछ भी नहीं है हर कोई परिश्रम करता है तथा परिश्रम के बाद यह अपेक्षा करता है कि उसके परिश्रम का उसको उचित मूल्य मिले जिससे कि वह अपने जीवन काल को सुख व शांति से व्यतीत कर सकें ।
परंतु आज के समाज में मनुष्य अत्यधिक लोभी हो चुका है वह इतना धन कमाता है जिसका इस्तेमाल भी नहीं कर पाता और उस धन को कमाने के लिए वह किस हद तक जाता है ।
यह तो वह भी नहीं जानता यदि वेद पुराण या हम अपने धार्मिक ग्रंथों की बात करें तो उसमें हमें साफ पता चलता है कि मनुष्य को उतना ही धन कमाना चाहिए जितना की उसके कुटुंब का पालन-पोषण हो सके तथा यदि कोई अतिथि उसके घर आ जाए तो उसका भी वह पेट भर सके से एक श्लोक के माध्यम से समझिए
साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए।
मनुष्य को यह समझना होगा की आप धन किस प्रकार से कम आ रहे हैं और उस धन का कितना उपयोग कर पाएंगे क्या आप जो धन कमा रहे हैं उससे किसी को कष्ट तो नहीं हो रहा है ।
आपने किसी को धोखा तो नहीं दिया जिससे आपने यहां धन एकत्र किया केवल और केवल अपना स्वार्थ ही देखना तथा सामने वाले के दुख को ना समझना यह कहीं से उचित नहीं है मनुष्य को चाहिए कि केवल उतना ही कमाए जितना उसने परिश्रम किया है ना कि छल कपट करके किसी अन्य मनुष्य को दुख पहुंचाए जो धन अपने परिश्रम व निष्ठा से कमाया है वह आपको सब प्रकार से सुख ही सुख देगा परंतु यदि आपने छल कपट करके धन एकत्र किया है तो वह धन ना तो आप उपयोग कर पाएंगे और ना ही उस धन से आपके जीवन मैं खुशियां आएंगी
मनुष्य धन के पीछे तब तक भागता है जब तक उसका निधन ना हो जाए तो फिर आवश्यकता से अधिक धन एकत्र करके या फिर उसके लिए किसी असहाय व्यक्ति को दुख पहुंचाना कहां तक उचित है।
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